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पौड़ी के इस स्थान पर मॉ सीता ने ली थी भू—समाधि।


स्थानीय लोगों द्वारा आज भी किया जाता है नाटकीय रूपंतरण।

पौड़ी गढ़वाल/उत्तराखण्ड लाइव: शायद ही कोई एसा भारतीय होगा जिसे रामायण कथा की जानकारी न हो, हम सभी जानते हैं कि रामायाण के अंत में माता सीता अपने दोनों पुत्रों को श्री राम को सौंप कर स्वयं मॉ धरती की गोध में समा गई थी। लेकिन क्या यह बात सत्य थी कि ऐसा ही हुआ होगा। पुराणों में तो यही सत्य लिखा हुआ और नाटक व फिल्मों में भी यह दृश्य दिखाया जाता है। तो सोचने का विषय यह है कि अगर ऐसा सत्य है तो वह स्थान कहॉ हैं। तो हम आपको बताते हैं कि माता सीता जिस स्थान पर धरती पर समा गई वह स्थान उत्तरखण्ड में ही मौजूद है। जिसे आज भी आप अपनी आंखों से देख सकते हैं।

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देवों की भूमि उत्तराखण्ड को लेकर कहा जाता है कि इस भूमि पर एक समय पर कभी देवता भी वास किया करते थे। इसलिए आपको यहॉ हर किलोमीटर पर किसी न किसी सिद्ध मंदिर या मठ के होने की जानकारी मिलेगी। आज हम आपको उस स्थान के बारे में बताने जा रहे हैं जहॉ माता सीता ने भू समाधि ली थी।सीता

जी हां पौड़ी गढ़वाल के कोटसाड़ा, फलस्वाड़ी और देवल में ये मान्यता प्रचलित है कि जब भगवान राम ने माँ सीता का त्याग किया था तो माँ सीता ने फलस्वाड़ी गाँव मे भू समाधी ली थी। उनका मानना है कि इस जगह पर जमीन की खुदाई करने पर उनके केश जैसे निकलते हैं। दीपावली के 11 दिन बाद यहां हर साल मेला होता है। पुरातत्वविदों का कहना है कि फलस्वाड़ी गांव में ही सीता माता ने भू-समाधि ली थी। जनश्रुतियों के अनुसार यहां पर सीता माता का मंदिर भी था और बाद में वह भी धरती में समा गया था। हर वर्ष यहाँ मनसार मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें दूर दूर से लोग आर्शीवाद लेने पहुंचते है।

लोकमानस यह मानता है कि सीता माता ने अपनी मां पृथ्वी की गोद में अंतिम शरण ली थी। यही लोक कथाओं, गीतों, चित्रावलियों में मिलता है और इसी क्रम को आगे बढ़ाया है गढ़वाल में ऐसे तीन गाँवों ने जो माता सीता के वनवास तथा पृथ्वी के गर्भ में समा जाने के पवित्र तीर्थ माने जाते हैं तथा आदि काल से यहाँ इस मान्यता को बल देने वाले मेले, गीत, मंदिर एवं गाँवों के नाम प्रचलित हैं।

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यह तीनों गाँव पौड़ी गढ़वाल जिले में हैं। एक है सीतानस्यू (फलस्यारी), दूसरा है सीतासैंण और तीसरा है बिदाकोटि। यह तीनो स्थान सीता से जुड़े हैं।

सितनस्यु गाँव में माता सीता का एक प्राचीन छोटा-सा मंदिर था जिसे अब बड़ा अकार दिया जा रहा है, वहीँ एक पहाड़ी टीले पर वाल्मीकि आश्रम या उनका मंदिर है और यहीं हर वर्ष कार्तिक (नवम्बर) में सीता मेला लगता है- जिसे मनसर का मेला भी कहते हैं। जहाँ सीता माता के पृथ्वी में समाये जाते समय शोक विह्वल नागरिकों दवरा उनको रोके जाने के प्रयास का नाटकीय चित्रण होता है कि अंततः माता सीता के केश प्रजाजनों के हाथ में रह गए जो एक स्थानीय दूर्वा घास के रेशों के रूप में ग्रामीण मेले से सहेज कर घर और पूजा स्थल में रखते हैं।

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यहा एक पहाड़ी के दूसरी ओर सीतासैंण और बिदाकोटि गांव हैं। कहा जाता है कि सीतासैंण में माता सीता रहीं और लव—कुश को पाला तथा बड़ा किया। सीतासैंण के सामने ही वाल्मीकि ऋषि का मंदिर या आश्रम सरीखा एक छोटा-सा स्थान है जहाँ पूजा होती है। दोनों ही अलकनंदा के इस इस पार और उस पार हैं। कहते हैं राम ने लक्ष्मण से अश्रुपूरित नयनों से कहा था कि वे सीता को गंगा पार छोड़ आएं तो सीतासैंण के सामने अलकनंदा (गंगा) के तट पर बिदाकोटि वह स्थान है- जहाँ लक्ष्मण ने माता सीता को विदा दी।

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अनंत स्वच्छ नीला आकाश, गगन छूते पर्वत, निकट अठखेलियां करती बहती अलकनंदा (गंगा), पर्वतों के आँचल में शुभ्र चन्दन के तिलक समान शोभित सीता के मंदिर और वातावरण में एकाकीपन-निर्जनता, अलकनंदा के प्रवाह के मंद मंद स्वरों के अलावा कुछ भी और न सुनायी देता हो- सिर्फ और सिर्फ नाम, राम जी का नाम, ॐ नमः शिवाय का उच्चार….

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