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“गलत फहमी”


हरीश कंडवाल (मनखी) की कलम से।

वो दो जिश्म एक जान थे, एक दूसरे के परवान थे,  मोहब्बत ऐसी कि हर वक्त, एक दूजे पर मर मिटने वाले थे।

 

वक्त ने जैसे जैसे रफ्तार पकड़ी, मोहब्बत और गहरी होती चली, दोनों ने मर मिटने की कसमें खाई, मंदिर में जाकर उन्होंने शादी रचाई।

अपने उनसे रूसवा हो गये थे, वो दुनिया से दूर हो गये थे, उनका अटूट प्यार बरकरार था, खुद से ज्यादा दूसरे पर विश्वास था।

वक्त का पहिया घूमता चला गया, दोनों का प्यार बढता चला गया, जीवन रंग में बंसत आने लगे थे, प्यार की कलियॉं फूल बनने लगे थे।

मोहब्बत के जब तक फल लगते, उनकी खुशियों को सुंदर पंख लगते, उनके बीच गलत फहमी ने जन्म लिया,  विश्वास की डोर को अविश्वाश ने तोड़ दिया।

जो कभी एक दूजे की बिन नहीं रह सकतें थे, अब वह एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते,  कभी प्यार बरसता था घर में अब मौन है
यहीं सोचते हम दोनों के बीच तीसरा कौन हैँ।

जँहा कभी प्रेम था वँहा अब नफरत हों गई, जंहा त्याग था वँहा अब स्वार्थ हों गया, जंहा प्रीत ही प्रीत थी दुश्मनी गठ जोड़ दिया
एक गलत फहमी ने कैसा रिश्ता तोड़ दिया।

घर के रिश्ते लड़ाई अब अदालत में चली गई, मोहब्बत प्यार की बातें अब दलीले बन गई, कौन समझाये एक दूसरे को यह घर तुम्हारा
कौन बताये ये पवित्र रिश्ता हैँ सिर्फ तुम्हारा।

अदालत में दोनों पक्षो को सुनकर जज ने निर्णय सुनाया, मजबूत रिश्तों के बीच गलत फहमी मत पालिये, सुख चाहिए तो अहम और वहम कभी मत पालिये। अगर गलत फहमी हों भी जाये तो आपस में बात कीजिए, तुम एक दूजे के हों घर जाकर पुनः विचार अवश्य कीजिए।

 

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