परोपकार में है प्रमानंद
परोपकार से बढ़ कर कोई उपकार नहीं,पाप और पुण्य की कल्पना हमारे ऋषियों ने इस लिए की थी कि संसार में मनुष्य शांतिपूर्ण ब सुखी जीवन जिसके,इस मे पूर्ण मानवता का आदर्श छिपा है,ईश्वर की आराधना आज मनुष्य अपने भौतिक सुख के लिए ही कर रहा है,उसे मान – सम्मान,ऐश्वर्य,वैभव आदि मिले,भले ही उसे कैसा भी कर्म करना पड़े,स्वार्थ में यह भूल जाता है कि संसार प्रिवर्तन शील है,परिस्थिति कभी भी अनुकूल या प्रतिकूल भी हो सकती हैं,
हमे यह समझना चाहिए कि मानव जीवन बड़े भाग्य से मिलता है,इसका सदुपयोग नही किया गया तो सारा जीवन व्यार्थ हो जायेगा,यही एक जीवन है,जिसमे सत्कर्म करने के बड़े अवसर मिलते हैं,भाग्य से यदि धन प्राप्त हुआ है तो ऊसका भोग या दान करना चाहिए,सम्मान मिला है तो दूसरों को भी सम्मान दे,यादि ऐश्वर्य प्राप्त है तो उसका लाभ औरों को भी मिले,ऐसा प्रयास करना चाहिए,पुराणों में अनेक कथायें हैं,जिससे व्यक्ति अच्छा कर्म करने की प्रेरणा ले सकता है,लेकिन मात्र कथा सुनने से कुछ नहीं होता,पाप और पुण्य दो विचार हैं,अच्छे विचारों को हम पुण्य और गलत विचाओं को हम पाप कहते हैं,यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है कि गलत कर्म करते हुए हमे हिचक होती है और अच्छे कर्म से सुख की अनुभूति होती है,इसी को ऋषियोंने पाप और पुण्य कहा है,परोप कार के अनेक उदाहरण हमे मिलते हैं,मानव ही नही पशु पक्षी भी परोपकार करते हैं,नदी अपना जल खुद नही पीती,गाय अपना दूध स्वयं नही पीती,वायु,जल,अग्नि,वर्षा,सूर्य चांद का प्रकाश दूसरों के ही काम आता है,
दुःख इस बात का है कि सभी परोपकार के महत्व को जानते हुए भी इसकी अनदेखी करते हैं,परोपकार मे इतनी शक्ति हैकि आप स्वयं अनुभव कर सकते हैं,किसी का दुःख दूर करके देखिये,आपको कितने आनंदकी प्राप्ति होगी,यही परमानंद है,हर जीवमे प्रमाण है,मानव धर्म यही है कि दूसरों को पीड़ा न पहुचायें,जहां तक बन पड़े दूसरों के सुख दुःख में सहभागी बनें,व्यवहारिक जीवन मे देखे तो हमे पता है कि यदि हमारा पड़ोसी दुःखी होता है तो हमारी भी शांति भंग होती है,सभी सुखी हो, सबमें प्रेम हो,सभी शांति का अनुभव करे यही तो है,(सर्वे भावनुसूखीन:का अर्थ)हम तो विश्वबंधुता और धनवता के पुजारी है तो क्यों न इस आदर्श को अपनाये,देखिएगा सारा संसार अपना होगा,
M S Rawat,
Abhaykhand 1/168 HIG, Indrapuram,
GZB 201014, 9313026304,01203262566,