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” गुल्लक की हंसी”

 

पिता बच्चे को सिक्के देता
फिर गुल्लक की ओर इशारा करता
चलो, डाल दो उसमें!
नाखुश बच्चा,
गुल्लक से वैर रखता।
पैसे डालते वक्त सवाल जरूर पूछता-
कब तोड़ेंगे गुल्लक!
अगली दिवाली पर!!!
फिर महीनों का हिसाब लगाता,
और दिवाली की दूरी का अंदाजा लगाकर
नाखुशी, नाउम्मीदी से भर जाता।
…………………….
बच्चा गुल्लक से खेलता,
इस उम्मीद में कि
खुद ही गिरकर टूट जाएगी
और सारी खनखनाहट बिखर जाएगी धरती पर,
कोमल मन में!
कभी-कभी
अकेले में खनकाकर देखता,
दोस्तों को सुनाता सिक्कों की रुन-झुन, खन-खन,
अक्सर गुल्लक को साथ लेकर सो जाता,
नर्म बिस्तर में!
…………………………………
उम्मीदों की गुल्लक
हजारों तालों में बंद रहती।
बच्चे को यकीन है,
ठसाठस भरी है गुल्लक।
और पिता को अंदेसा-
अभी तो खाली पड़ी है!
दो छोरों पर खड़े हैं दोनों
गुल्लक भी कभी-कभी हंसती है
दोनों की उम्मीदें देखकर!

सुशील उपाध्याय



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