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होली के समय स्कूल की छुट्टियों का बेसब्री से इंतजार रहता।


पहाड़ की होली
डॉ हरीश लखेड़ा
……. तब स्कूल की छुट्टियां होने का बेसब्री से इंतजार रहता और स्कूल बंद होते ही हम सभी बच्चे कई दिनों तक होली का त्योहार मनाते। ढोलक की थाप पर रात को गांव में घर-घर जाकर होली ( जिसे हम होरी कहते थे) के गीत गाते थे। एक जोकर बनता और होरी का झंडा लेकर आगे=आगे चलता था। होरी गाने के बदले में हमें गुड़, चावल और दाल मिलती थी, कई लोग कुछ पैसा भी दे देते थे।

होली के दिन नदी के पास चले जाते और जमकर मस्ती करते। होलिका दहन के बाद नदी में नहाते और पानी से खेलते। होली खेलते वक्त मिले दाल-चावल से खिचड़ी बनाकर खाते। शाम को क्रिकेट भी खेलते थे। तब रंग तो नहीं थे पर मन में उमंग थी।

उत्तराखंड में होली को सामाजिक कार्यों से भी जोड़ा गया था। मसलन, किसी गांव में स्कूल की इमारत बनाने के लिए पैसा जुटाने का प्रयास भी होली के माध्यम से ही होता था। उस क्षेत्र के गांवों के युवकों की कई टोलियां लगभग एक माह पहले से दूर-दराज के क्षेत्रों में चली जाती थी और गांव- गांव होरी खेलती। उससे मिले पैसे का सदुपयोग स्कूल की इमारत बनाने में किया जाता था।

लेकिन अब सब कुछ बदल गया है। रंग वहां भी पहुंच गये हैं लेकिन वह मस्ती गायब हो चुकी है।

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