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कौन था दुनिया का पहला कावड़िया ? जानिए कांवड यात्रा के रहस्य।


क्या होते हैं कांवड़ यात्रा के सख्त नियम और कानून।

कांवड़ स्पेशल/उत्तराखण्ड लाइव: श्रावण मास में इन दिनों उत्तराखण्ड में कांवड़ यात्रा जोर पकड़ने लगी है। धीरे—धीरे श्रद्धालु देशभर से कांवड़ लिए नीलकंठ धाम पहुंच रहे हैं। कोई पैदल तो कोई दुपहिया और चौपहिया वाहन से यहॉ पहुंच रहा है। वर्षों से हम यह यात्रा देखते आ रहे हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि इसकी शुरूआत कब और किसने की थी ?  सवाल यह भी है कि आखिर सबसे पहला कावड़िया कौन था ? आखिर इन सबका इतिहास  क्या है ? आइए हम आपको बताएंगे कि इन सबकी शुरूआत कब और कहॉ से हुई और इसके साथ ही कांवड़ यात्रा के ​नियम कानूनों के बारे में भी आज जानकारी देंगे, तो ध्यान से पढ़े इस लेख को।

कांवड़ को सावन के महीने में ही लाया जाता है। कांवड़ को सावन के महीने में लाने के पीछे की बहुत सी मान्याताएं हैं एक मान्यता के अनुसार कहा जाता है कि इसी महीने में देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन किया गया था। जिसमें सैकड़ों रत्न,आभूषणों के अलावा बहुमूल्य सामग्री और शक्तियां निकली जिसे बारी—बारी से देवाताओं और असुरों में बांट दिया गया। लेकिन इसी बीच इस मंथन से कुछ ऐसा निकला जिससे देवता और असुर दोनों भयभीत हो गए, यह था हलाहल विष, जी हॉ यह वहीं विष था जिसे देवों के देव भगवान शिव ने देव, असुर और इस श्रृष्टि को इस विष के प्रकोप से बचाने के लिए इसे स्वयं पी लिया था। जिसे शिव ने अपने कंठ में धारण किया। कहते हैं इस विष का ताप इतना भयानक था कि इससे भगवान शिव का शरीर भी जनले लगा। विष के प्रभाव को समाप्त् करने के लिए भगवान शिव उत्तराखण्ड के इन्हीं शीतलता प्रदान करने वाले पर्वतों के बीच जाकर बैठे इसी बीच देवताओं द्वारा उनके शीष पर जल अर्पित कर विष के ताप को शांत करने की कोशिश की गई। कहा जाता है तभी से शिव पर जल अर्पित करने की रीत का जन्म हुआ। पहले देवताओं ने उन पर जल चढ़ाया तो वहीं उसके बाद भगवान शिव की भक्ति में चूर उनके भक्त भी उन पर जल चढ़ाने लगे।

कौन था दुनिया का सबसे पहला कांवड़िया ?

कांवड़ के बारे में कुछ ज्योतिषियों का कहना है कि सबसे पहले भगवान परशुराम ने कांवड़ से गंगा का पवित्र जल भगवान शिवजी पर चढ़ाया था। वे सबसे पहले कांवड़ लेकर बागपत जिले के पास ‘पुरा महादेव’ गए जहॉ उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर से गंगा जल लेकर भोलेनाथ का जलाभिषेक किया। उस समय श्रावण मास चल रहा था, तब से इस परंपरा को निभाते हुए भक्त श्रावण मास में कांवड़ यात्रा निकालने लगे। तभी से भगवान शिवजी पर सावन के महीने में जल चढ़ाने की परंपरा शुरू हो गई।

श्री राम ने किया था शिव का जलाभिषेक: कुछ अन्‍य मान्‍यताओं के अनुसार सबसे पहले मर्यादा पुरुषोत्‍म श्रीराम ने अपने श्रद्धेय भोलेनाथजी का जलाभिषेक किया। एक कथा के अनुसार श्रीराम ने बिहार के सुल्तानगंज से कांवड़ में गंगाजल भरकर बाबाधाम में शिवलिंग का जलाभिषेक किया था। तभी से यह मान्यता हुई कि भगवान शिव को प्रशन्न करने के लिए उन पर ​जलाभिषेक किया जाता है।

श्रांवण मास का होता है बड़ा महत्व: सावन में कांवड़ यात्रा का बहुत महत्‍व है। इस दौरान भक्‍तजन अपनी मनोकामना पूरी करने के ल‍िए कांवड़ यात्रा पर न‍िकलते हैं और भोलेनाथ को जल अर्पित करते हैं। मान्‍यता है क‍ि इस महीने में भगवान श‍िव अपनी ससुराल राजा दक्ष की नगरी कनखल, हर‍िद्वार में न‍िवास करते हैं। श्रीहर‍ि व‍िष्‍णु के शयन में जाने के कारण तीनों लोक की देखभाल भोलेनाथ स्‍वयं करते हैं। यही वजह है क‍ि कांवड़‍िए सावन महीने में गंगाजल लेने हर‍िद्वार पहुंचते हैं।

कावड़ है क्या : आध्यात्मिक दृष्टि से देखें तो यह जीव का ब्रह्म से मिलन माना जाता है। क यानी ब्रह्म का रूप है और अवर शब्द को जीवन कहा गया है। क में अवर की संधि करें तो कावर बनता है। यही कावर उच्चारण आज बदलकर कावड़ कहलाया जाता है।

जानिए क्या होते हैं कांवड़ियों के नियम—कानून:—  तो चलिए आपको बताते हैं कि कांवड़ियों की दिनचर्या और क्या होते हैं उनके नियम कानून।

  • कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ियों को एक साधु की ही तरह रहना पड़ता है।
  • गंगाजल भरने से लेकर उसे शिवलिंग पर अभिषेक करने तक का पूरा सफर भक्त पैदल,नंगे पांव ही तय करते हैं।
  • यात्रा के दौरान किसी भी तरह के नशे या मांसाहार की मनाही होती है।
  • इस दौरान यात्रा में किसी को अपशब्द भी नहीं बोला जाता।
  • स्नान किए बगैर कोई भी भक्त कांवड़ को छूता तक नहीं।
  • आम तौर पर यात्रा के दौरान कंघा,तेल,साबुन आदि का इस्‍तेमाल नहीं किया जाता है।
  • कांवड़िया यात्रा के दौरान किसी भी प्रकार की चारपाई पर न सो सकता है न बैठ सकता है।
  • सफर के दौरान चमड़े की किसी चीज का स्पर्श वर्जित होता है।

श्रावण मास में लाखों की तादाद में कांवडिये सुदूर स्थानों से आकर गंगा जल से भरी कांवड़ लेकर पदयात्रा करके अपने गांव वापस लौटते हैं इस यात्राको कांवड़ यात्रा बोला जाता है। श्रावण की चतुर्दशी के दिन उस गंगा जल से अपने निवास के आसपास शिव मंदिरों में शिव का अभिषेक किया जाता है। कहने को तो ये धार्मिक आयोजन भर है, लेकिन इसके सामाजिक सरोकार भी हैं। कांवड के माध्यम से जल की यात्रा का यह पर्व सृष्टि रूपी शिव की आराधना के लिए हैं। पानी आम आदमी के साथ साथ पेड पौधों, पशु – पक्षियों, धरती में निवास करने वाले हजारो लाखों तरह के कीडे-मकोडों और समूचे पर्यावरण के लिए बेहद आवश्यक वस्तु है। उत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति को देखें तो यहां के मैदानी इलाकों में मानव जीवन नदियों पर ही आश्रित है।

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